Sunday, November 22, 2009

कौन है वो.....??

फूल झड़ने के मोसम मैं,
झर झर पत्तों के पतझड़ मैं
सावन है लाया....
कौन है वो.....??

सूखे बादल घुमड़ रहे है,
पानी को वो तरस रहे है,
इन्द्र देव से चोरी छुपे,
वर्षा के बादल है लाया,
कौन है वो.....??

एक अनजान की जिन्दगी मैं आकर,
विश्वास की डगर पे जीना सिखलाया,
नफरत के इस बंज़र मैं प्यार का एक फूल खिलाया,
हर बार नई तरह से मुझे
अपना महत्त्व है समझाया,
वो इंसान है या देवलोक से उतरा कोई परिंदा....
कौन है वो.....??

सुने पड़े रास्ते पर,
एक उजड़े बाग़ को मैंने है देखा,
जहाँ फूल रहे मुरझाये,
छाँव भी अपना मुह छिपाए,
अपने को रोपित करने मैं,
वृक्ष भी जहाँ बहुत इठलाये,
ऐसे बाग़ मैं गुलाब लगा रहा,
इस तपित बंज़र मै छाँव ला रहा...
कौन है वो.....??

पल भर मैं रूठ जाता है,
फिर कोमल अशरुओ से अपने ,
अपना प्यार दिखाता है

शायद कोई इन्द्र का बन्दा,
आज इस जमीं पर उतरा,
जिसे चंदा अपनी चांदनी संग देखने आए,
सूरज भी रौशनी से उसे जगमग जगमग कर जाए,
पंछी बैठे दाल पर
उतर जमीं पर आए,
कोयल भी पतझड़ मोसम मैं,
सावन के गीत सुनाये,
ऐसा एक अनोखा, असाधारण अद्वितीय
कौन है वो.....??
कौन है वो....??

Saturday, November 7, 2009

फिर वही क्यों सामने आई....??

मध्यम मध्यम चलती लहरों ने,
कलित-पुलकित चहकते सुरों ने,
फिर वही तस्वीर दिखाई.......
सुख के मोहरों से दूर,
दर्द के आगोश मैं,
स्वच्छंद आकाश से दूर,
काले कोरे बादलों मैं,
फिर वही क्यों सामने आई.....
फिर वही क्यों सामने आई.....??


वो फूलों के सपने सजाती कलियाँ,
रंग बिरंगी आभा से राज्जित,
सुनहरी चादर ओढेवो मेरे सपनों की दुनिया,
दुनिया....जिसमें है टूटे तारे,
तारे......जो हैं जुड़ने की आस मैं,
आस.....जो शायद मन के द्वंद को है थामे,
द्वंद.....जिसे ख़त्म करेंगी वो आशाएं,
इन आशाओं मैं अपना एहसास देने,
फिर वही क्यों रौशनी आई.....
अपनी मध्यम लो से
आख़िर उसी ने क्यों है अलख जगाई ?

सुख के मोहरों से दूर,
दर्द के आगोश मैं,
फिर वही क्यों सामने आई...
फिर वही क्यों सामने आई...??


नीले स्वच्छंद सागर मैं,
लहराता एक नादान सा केंचुआ,
सागर की क्रूर लहरों से अनजान,
शायद सोच रहा है जिन्दगी जीने को,
जानते हुए भी की.....
आगोश मैं ले लेंगी,
ये क्रूर लहरों की दुनिया,
चन्द लम्हों की ये जिन्दगी उसकी,
इन चन्द पलों को सँवारने के लिए,
लहरों से आँख लडाकर,
इक नई जिन्दगी दिखाने,
फिर वही क्यों अपना 'अंश...' है लायी ?

सपनों की जिन्दगी जीने के लिए,
एक दिए की तरह,
फिर उसी ने क्यों है अलख जगाई?

सुख के मोहरों से दूर,
दर्द के आगोश मैं,
फिर वही क्यों सामने आई...
फिर वही क्यों सामने आई...??








Thursday, November 5, 2009

ऐ वक्त ज़रा थम जा......

ऐ वक्त ज़रा थम जा,
ज़रा ठहर जा.....
जी लेने दे ये चंद लम्हे,
लम्हे...जिसने दी है एक नई दुनिया मुझे,
जिनमें समाया मेरा स्वर्ग,
अनुभूति मात्र से जिसकी,
रूह तक होती कोमल मेरी !

चंद लम्हों की ये जिन्दगी,
एक नया सपना सजाये,
एक नई रौशनी लाये
आत्मा मैं मेरी....
अपनी गति रोक दे,
जी लेने दे ये नई दुनिया
संग उसके मुझे....

वो....जो इस पल सिर्फ़ मेरा है,
वही मेरी भोर की शाम,
वही मेरा नया सवेरा है,
ऐ वक्त ज़रा थम जा !
ज़रा ठहर जा !

इसमें समायी कई यादें,
यादें....जो शायद कभी वापस ना आए,
थोडी बहुत जो स्वर्ग की अनुभूति हुई है,
क्या पता, उसे भी अपने संग ले जाए ?
मत पूछ मुझसे की कैसे
मन्दिर है वो सपनों का,
दर्शन है जिनमें मेरे अपनों का,
इन पलों ने दी है कुछ खुशी..कुछ गम,
गम भी नही है एक अद्दभूद खुशी से कम !

ना पूछ मुझसे की क्या होगा मेरा,
अगर तू ले गया एक झटके मैं इनको,
जी भर भी ना जिया जिनको...
ऐ वक्त ज़रा थम जा !
ज़रा ठहर जा....
जी लेने दे ये चंद लम्हे
संग उसके...
ताकि मर सके ये 'अंश....' सुकू से,
ऐ वक्त ज़रा थम जा !
ज़रा ठहर जा !!

Wednesday, November 4, 2009

मौत मेरे दोस्त......

है इक सवाल दोस्त मेरा तुझसे,
क्या रखा है इस दुनिया मैं,
जो जी रहा है तू यहाँ मर मर के,
चल संग मेरे इक नई दुनिया मैं....

क्या रखा है....
जलते सूरज की तपन मैं,
बर्फीली पहाडियों के कपन मैं,
सुनसान गुफाओं के घुटन मैं,
जंगल के भयानक अंधेरे मैं,
आजा मेरे संग ए दोस्त मेरे,
संग चल दिखाऊ दुनिया नई तुझे,
आजा अपने सपने यहाँ जी ले,
वो सपने जो कभी ना हो सके पुरे....

इक रंग बिरंगी दुनिया लाया हूँ,
दुनिया जो सिर्फ़ ख्वाबों मैं होती है,
मगर ये ख्वाब नही....बस सच्चाई है,
खुबसूरत मनमोहक और जादू भरी है....

मौत मेरे दोस्त....मैं आ नही सकता,
बहुत कुछ है बाकी करने को,
बहुत कुछ है अभी पाने को,
बहुत रास्ते है करने को,
दोस्त.....
अभी तो सूरज सिर्फ़ उगा है,
और रात तो बहुत दूर है,
अभी तो राह पर चलना शुरू किया है,
मौत मेरे दोस्त....
जिन्दगी तो अब शुरू हुई है !!

Tuesday, November 3, 2009

कभी अलविदा ना कहना......


कभी अलविदा ना कहना दोस्त
ना जाने कहाँ फिर मुलाकात होगी,
ख्वाबों मैं ही सही.....मुलाकात तो होगी,
बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी !

वो रेशम की डोर से बंधा friendship band,
रिश्तों मैं बंधने से....निभाने की आस तो होगी,
हमारी हँसी खुशी गम की तस्वीर वो डोर,
हम जाएँ कही भी...उसकी महक साथ तो होगी,
ख्वाबों मैं ही सही....मुलाकात तो होगी,
कभी अलविदा ना कहना दोस्त.....

फूलों की तरह दिल मैं बसाये रखना,
यादों के चिरागों को जलाये रखना,
लंबा है सफर...कभी आह! तो होगी,
क्वाबों मैं ही सही...हमारी याद तो होगी,
कभी अलविदा ना कहना दोस्त.....
कभी ना कभी मुलाकात तो होगी !

वो साथ गुजरे लम्हों की दौलत,
जज़्बात की दौलत...खयालात की दौलत,
कुछ पास हो न हो...
पास ये सौगात तो होगी,
ख्वाबों मैं ही सही...हमारी बात तो होगी,
कभी अलविदा ना कहना दोस्त.....
कभी ना कभी मुलाकात तो होगी !!

Monday, November 2, 2009

अंश....

ये सच है की वक्त किसी का नही है सानी,
सुख दुःख..अच्छा बुरा,
सभी ने उसकी है मानी,
फिर भी अपनी ओझल आखों से
वक्त का थामे दामन,
आने वाले सुख मैं....
क्यों देख रहा हूँ मैं अपना 'अंश...' ?

वो नज़रों मैं टिमटिमाती
आखों मैं चमकते तारे के समान झिलमिलाती,
सोहाद्रता के आँगन मैं अपने,
पल पल साथ होने का एहसास दिलाती वो.....

सोचता हूँ
अगर पल भर की है दुनिया संग उसके,
तो उस झिलमिलाती आखों मैं
एक सच्चे दूरदर्शक की भांति,
क्यों देख रहा हूँ मैं अपना 'अंश....' ?

वृहदाकार वृक्षों के बीच,
खिल रहा है एक नन्हा पौधा,
पौधा , जो जूझ रहा है
इन अनजानी हवाओं मैं,
इन झोकों से लहराती नन्ही पत्तियां
जाने है उनके कहर को,
लेकिन दृढ़ विश्वास से स्थूल हो,
अडिग है अपने पथ पर.....

उन विशाल वृक्षों के बीच
उस नन्हे पौधे मैं फिर भी,
क्यों पा रहा हूँ मैं अपना 'अंश...' ?
क्यों देख रहा हूँ मैं अपना 'अंश....'?
क्यों.....??



सोचता हूँ मैं.......


जब भी अकेले मैं होता हूँ तो,
तिनके सी महीन,
पत्थर सी मजबूत,
फूलों सी कोमल,
काँटों सी चुभने वाली हर बात को
सोचता हूँ मैं........!

अँधेरी गुफाओं मैं एक दिए की रौशनी,
जो मेरे जीवन के अंधेरों को अपने उजालों से
अनवरत तन्मयता से हर रही है,
काँटों भरे रास्तों को
अपनी कोमल आशाओं से भर रही है,
संघर्ष के हर आगाज पर
जीवन के हर मोड़ पर
होंसला देने को खड़ी है,
उस मृदुल सूक्ष्म रौशनी को
ह्रदय के हर कोने मैं टटोलता हूँ मैं,
जब भी ख़ुद से वाकिफ होता हूँ तो ऐसा
सोचता हूँ मैं........!

सोचता हूँ की,
अगर सपने देखने मात्र से साकार हो जाते है,
तो क्यों हम उनको नही देख पाते हैं ??
अगर कठिनाईयां परिश्रम से दूर हो जाती हैं,
तो क्यों हम उतना परिश्रम नही कर पाते हैं ??
क्यों हर बार अपने आपको बीच मजधार मैं फंसे हुए पाते है ?

उस मांझी की तरह जो,
अपने लक्ष्य पर तो निकल चुका है,
मगर घोर तूफानों के संगीनों मैं,
परिश्रम और साहस से भी,
लक्ष्य तक नही जा पा रहा है,
चट्टान की तरह मजबूत इरादों से भी,
उस बाधा को कुचल नही पा रहा है......

फिर भी मन मैं एक विश्वास की डोर है थामे,
की कभी न कभी तो वो इसे कुचल पायेगा,
अनवरत घोर परिश्रम से, पूरा ना सही,
थोड़ा तो पार कर पायेगा,
और शायद तब ही अपने लक्ष्य तक पहुच पायेगा.....
उसी मांझी का 'अंश...' अपने जीवन मैं देखता हूँ मैं,
जब भी ख़ुद से सामना करता हूँ तो ऐसा
सोचता हूँ मैं........!

सोचता हूँ की,
क्यों अपनों के होते हुए भी उनसे दूर है हम?
ख़ुद की ही दुनिया मैं मशगुल है हम,
क्यों ईर्ष्या और बेईमानी का रोग है हमें ?
क्यों अपने जख्म भरने से पहले,
दूसरों को जख्म दे देते हैं हम......

इस रावन की लंका मैं,
अपने राम को ढूँढता हूँ मैं,
जब भी ख़ुद से वाकिफ होता हूँ तो ऐसा
सोचता हूँ मैं.........
सोचता हूँ मैं.........!!