Saturday, November 7, 2009

फिर वही क्यों सामने आई....??

मध्यम मध्यम चलती लहरों ने,
कलित-पुलकित चहकते सुरों ने,
फिर वही तस्वीर दिखाई.......
सुख के मोहरों से दूर,
दर्द के आगोश मैं,
स्वच्छंद आकाश से दूर,
काले कोरे बादलों मैं,
फिर वही क्यों सामने आई.....
फिर वही क्यों सामने आई.....??


वो फूलों के सपने सजाती कलियाँ,
रंग बिरंगी आभा से राज्जित,
सुनहरी चादर ओढेवो मेरे सपनों की दुनिया,
दुनिया....जिसमें है टूटे तारे,
तारे......जो हैं जुड़ने की आस मैं,
आस.....जो शायद मन के द्वंद को है थामे,
द्वंद.....जिसे ख़त्म करेंगी वो आशाएं,
इन आशाओं मैं अपना एहसास देने,
फिर वही क्यों रौशनी आई.....
अपनी मध्यम लो से
आख़िर उसी ने क्यों है अलख जगाई ?

सुख के मोहरों से दूर,
दर्द के आगोश मैं,
फिर वही क्यों सामने आई...
फिर वही क्यों सामने आई...??


नीले स्वच्छंद सागर मैं,
लहराता एक नादान सा केंचुआ,
सागर की क्रूर लहरों से अनजान,
शायद सोच रहा है जिन्दगी जीने को,
जानते हुए भी की.....
आगोश मैं ले लेंगी,
ये क्रूर लहरों की दुनिया,
चन्द लम्हों की ये जिन्दगी उसकी,
इन चन्द पलों को सँवारने के लिए,
लहरों से आँख लडाकर,
इक नई जिन्दगी दिखाने,
फिर वही क्यों अपना 'अंश...' है लायी ?

सपनों की जिन्दगी जीने के लिए,
एक दिए की तरह,
फिर उसी ने क्यों है अलख जगाई?

सुख के मोहरों से दूर,
दर्द के आगोश मैं,
फिर वही क्यों सामने आई...
फिर वही क्यों सामने आई...??








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